उपेक्षा और संवेदना के बीच बुजुर्गों की स्थिति:-. सुजीत यादव

 उपेक्षा और संवेदना के बीच बुजुर्गों की स्थिति:-. सुजीत यादव 

*प्रस्तावना :परंपरा और वर्तमान का टकराव*

भारतीय संस्कृति और जीवनदर्शन में बुजुर्गों का स्थान सदा से उच्चतम माना गया है। जिस प्रकार 'यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता' की अवधारणा हमारी सामाजिक धारा का हिस्सा रही है, उसी प्रकार यह भी विश्वास गहराई से जुड़ा रहा कि बुजुगों के आशीर्वाद से घर-परिवार की उन्नति होती है। यही कारण है कि संयुक्त परिवार की परंपरा ने सदियों तक बुजुर्गों को सम्मान, स्नेह और सुरक्षा प्रदान की।

परंतु आधुनिकता की आंधी और बदलते सामाजिक समीकरणों ने इस संतुलन को गहरे स्तर पर प्रभावित किया है। आज अनेक बुजुर्ग उपेक्षा, मानसिक यातना और अकेलेपन का शिकार हो रहे हैं। समाचारों में अक्सर यह सुनने को मिलता है कि बेटा-बहू अपने माता-पिता को घर से निकाल देते हैं या वृद्धाश्रम भेजने के लिए विवश कर देते हैं। कई मामलों में शारीरिक और मानसिक अत्याचार भी सामने आते हैं। यह स्थिति न केवल चिंताजनक है, बल्कि समाज की नैतिकता पर भी प्रश्नचिह्न लगाती है। लेकिन तस्वीर का दूसरा पक्ष भी मौजूद है। आज भी भारतीय परिवार व्यवस्था में श्रवण कुमार जैसे पुत्र और ममता से भरी बहुएँ मिलती है, जो अपने बुजुर्ग माता-पिता और सास-ससुर की सेवा को ही अपना धर्म और कर्तव्य मानती हैं। ऐसे प्रेरक उदाहरण हमारी संस्कृति की ताकत हैं, जिन्हें समाज के सामने लाना आवश्यक है।

*भारतीय समाज में बुजुर्गों की भूमिका*

बुजुर्गों का स्थान केवल पारिवारिक सदस्य तक सीमित नहीं रहा। वे घर- परिवार की धुरी, अनुभव के मार्गदर्शक और संस्कारों के वाहक होते हैं। वे बच्चों को अनुशासन और मर्यादा सिखाते हैं।

.परिवार के कठिन निर्णयों में अंतिम शब्द उन्हीं का होता था।

• समाज में उनका आदर इसलिए था कि वे संघर्ष, अनुभव और धैर्य के प्रतीक माने जाते थे। संयुक्त परिवार की व्यवस्था इसी संतुलन पर टिकी थी। तीन-तीन पीढ़ियाँ एक छत के नीचे रहतीं और हर सदस्य को सुरक्षा का भाव मिलता 

*आधुनिकता और बदलते सामाजिक समीकरण*

 आज की सदी का समाज तेजी से बदल रहा है।

.शिक्षा और रोजगार ने युवाओं को गाँव और छोटे कस्बों से दूर महानगरों व विदेशों की ओर आकर्षित किया।

• एकल परिवार का प्रचलन बढ़ा जहाँ स्वतंत्रता और निजता को प्राथमिकता दी जाने लगी। 

.महिलाओं की कार्यक्षेत्र में भागीदारी बढ़ने से घर के भीतर बुजुर्गों की देखभाल स्वतः प्रभावित हुई। इन सबका परिणाम यह हुआ कि बुजुर्ग धीरे-धीरे अकेलेपन और उपेक्षा की स्थिति में पहुँच गए। रिटायरमेंट के बाद आर्थिक स्रोत सीमित हो जाते हैं, जबकि स्वास्थ्य संबंधी खर्च बढ़ते हैं। संतान यदि केवल भौतिक जरूरतों तक सीमित सोच रखे तो बुजुर्ग बोझ प्रतीत होने लगते हैं।

*उपेक्षा के विविध रूप* 

बुजुगों की उपेक्षा कई स्तरों पर दिखाई देता है-

*मानसिक उपेक्षाः* उनसे बातचीत न करना, निर्णयों से दूर रखना, उनकी भावनाओं को नजरअंदाज करना।

*शारीरिक उपेक्षा :* देखभाल की कमी, समय पर दवा और भोजन न देना।

*आर्थिक उपेक्षा:* पेंशन या संपत्ति पर अधिकार जमाकर जरूरतें पूरी न

करना।*सामाजिक उपेक्षा:* आयोजनों और समारोहों से अलग कर देना। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट बताती है कि बुजुर्गों के खिलाफ अपराधों में लगातार वृद्धि हो रही है। इनमें से कई घटनाएँ परिवार के भीतर घटती हैं, जो समाज की संवेदनशीलता पर बड़ा प्रश्न उठाती हैं। 

*संवेदना और सेवा के प्रेरक उदाहरण*

 हालांकि हर कहानी अंधकारमय नहीं होती। आज भी असंख्य परिवारों में बुजुगों की सेवा और सम्मान को सर्वोच्च स्थान दिया जाता है। लेखक सुजीत यादव स्वयं एक विधुर बुजुर्ग के पुत्र होने के नाते बताते हैं कि तीन बेटों और बहुओं के रहते हुए हम लोग अपने माता पिता को कभी उपेक्षा का अनुभव नहीं होने दिया और लेखक की दादी 100 वर्ष की हो चुकी है नाती पोते सब सेवा करते है , लेखक सुजीत यादव बताते है कि बल्कि सहयोग और प्रेम ने जीवन को सहज बनाए रखा। यह अनुभव इस बात को सिद्ध करता कि तस्वीर केवल नकारात्मक नहीं है, बल्कि सकारात्मक उदाहरण भी कम नहीं हैं। बहुत-सी बहुएँ अपने सास- ससुर की सेवा करते हुए तनिक भी संकोच नहीं करतीं। कई जगह पुत्र अपने माता-पिता के साथ श्रवण कुमार की भाँति सेवा-भाव रखते हैं। ये दृश्य भले ही कम चर्चित हों, लेकिन भारतीय समाज के उज्वल पक्ष की मिसाल है।

*समस्या का मूल नकारात्मकता की चर्चा*आज की सबसे बड़ी समस्या यह है कि नकारात्मक उदाहरण तेजी से चर्चा में आते हैं, जबकि सकारात्मक कहानियाँ हाशिये पर रह जाती है। मीडिया उपेक्षा और अत्याचार को सुर्खियों में लाता है, लेकिन सेवा और संवेदना की घटनाएँ विरल ही दिखती हैं। इससे पीढ़ियों के बीच अविश्वास की दीवार खड़ी होती है। यदि हम उन प्रेरक कहानियों को सामने लाएँ जहाँ बुजुर्ग परिवार की धुरी बने हुए हैं और संतानें उनकी सेवा में गर्व महसूस करती हैं, तो समाज में एक नई सोच विकसित हो सकती है। *बुजुर्गों की भी जिम्मेदारी*

वह भी ध्यान देने योग्य है कि केवल बच्चों और समाज की ही जिम्मेदारी नहीं है। बुजुर्गों को भी समय के साथ अपने दृष्टिकोण में परिवर्तन करना चाहिए।अत्यधिक अपेक्षाएँ संबंधों में तनाव ला सकती है।कठोर बेवहार पीढ़ियों के बीच दूरी बड़ा देती है ।यदि बुजुर्ग संतान के जीवन की चुनीतियों को समझें और सहयोगी रवैया अपनाएँ तो रिश्तों में मिठास बनी रह सकती है। संवाद बनाए रखना सबसे बड़ी कुंजी है। संवाद से गलतफहमियाँ मिटती हैं और विश्वास मजबूत होता है। 

*आँकड़े और वर्तमान स्थिति का यथार्थ*

भारत में बुजुगों की संख्या लगातार बढ़ रही है। जनगणना 2011 के अनुसार भारत में 60 वर्ष से अधिक आयु के लोगों की आबादी लगभग 10.4 करोड़ थी। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (NSO) की 2021 की रिपोर्ट के अनुसार यह संख्या बढ़कर करीब 14 करोड़ हो गई। अनुमान है कि वर्ष 2050 तक भारत में हर पांचवीं व्यक्ति वरिष्ठ नागरिक होगा। इतनी बड़ी जनसंख्या केवल सांख्यिकीय तथ्य नहीं, बल्कि सामाजिक चुनौती भी है। एक ओर यह वर्ग अनुभव और परंपरा का प्रतिनिधि है, तो दूसरी और स्वास्थ्य, सामाजिक सुरक्षा और आर्थिक सहयोग की आवश्यकता से जूझ रहा है।

*बदलता सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य*

आर्थिक स्वतंत्रता और शहरीकरण ने युवा पीढ़ी की जीवनशैली को पूरी तरह बदल दिया है। नौकरी और व्यवसाय के अवसर आज महानगरों और विदेशों तक फैले हुए हैं। ऐसे में बच्चे गाँव-कस्बों से दूर चले जाते हैं और माता-पिता अकेले रह जाते हैं। इसके साथ ही महिलाओं की भागीदारी भी कार्यक्षेत्र में बढ़ी है। पहले बहुएँ घर की धुरी होती थीं और बुजुगों की देखभाल सहज रूप से हो जाती थी, लेकिन अब जब महिलाएँ भी नौकरियों में व्यस्त हैं तो बुजुर्गों को आवश्यक समय और देखभाल मिलना कठिन हो गया है। आधुनिक जीवनशैली में भौतिक सुख-सुविधाओं पर बल अधिक है। ऐसे में 'बुजुर्गों की सेवा कई बार युवाओं को अतिरिक्त बोझ लगती है। यह मानसिकता सबसे बड़ा संकट है, क्योंकि इससे बुजुगों की गरिमा और सम्मान प्रभावित होता है।

*लेखक सुजीत यादव एक जीवंत उदाहरण जिन्हेंने अपने बुजुर्ग माता पिता के लिए हरियाणा की विरासत छोड़कर गांव बाघी में बस गए और अपने माता पिता की सेवा को ही भगवान की सेवा मानते है*

 *अंतरराष्ट्रीय परिप्रेक्ष्य और भारत के लिए सीख*

यदि हम अन्य देशों की ओर देखे तो बुजुगों की स्थिति वहाँ भी चुनौतीपूर्ण है। विकसित देशों में भले ही पेंशन और स्वास्थ्य सुविधाएँ बेहतर हो, लेकिन एकल परिवार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता के कारण बुजुर्ग प्रायः अकेले रहते हैं। कई देशों में तो 'ओल्ड एज होम जीवन का सामान्य हिस्सा बन।चुके हैं। भारत में अब भी भावनात्मक रिश्तों की जड़ें गहरी हैं। यह हमारी ताकत है, जिसे बचाना और संजोना जरूरी है। यदि हम पश्चिमी देशों की भांति केवल वृद्धाश्रम संस्कृति अपनाएँगे तो हमारी सामाजिक परंपरा का मूल भाव ही कमजोर हो जाएगा। 

*तकनीक और बुजुर्ग*

आज की डिजिटल दुनिया बुजुगों के लिए अवसर और चुनौती दोनों है।यदि वे मोबाइल और इंटरनेट का उपयोग करना सीख लें तो संचार, बैंकिंग और स्वास्थ्य सेवाओं तक उनकी पहुँच आसान हो सकती है। कोरोना महामारी के दौरान कई उदाहरण सामने आए जहाँ बुजुगों ने वीडियो कॉल और ऑनलाइन पूजा पाठ के माध्यम से अकेलेपन को कम किया। लेकिन तकनीकी दूरी भी कई बार उन्हें मानसिक तनाव देती है। इसलिए परिवार और समाज को चाहिए कि वे बुजुर्गों को तकनीक से जोड़ने में मदद करें।

*सरकार और कानून की भूमिका*

भारत सरकार और राज्य सरकारें बुजुगों की सुरक्षा और कल्याण के लिए अनेक योजनाएं चला रही हैं। वरिष्ठ नागरिक कल्याण अधिनियम 2007 के अंतर्गत संतान को अपने माता-पिता की देखभाल करना कानूनी दायित्व 

है।पेंशन योजनाएं, स्वास्थ्य बीमा, और वरिष्ठ नागरिकों के लिए विशेष छूट उपलब्ध हैं।

• कई राज्यों में वृद्धजन हेल्पलाइन और वृद्धाश्रमों की व्यवस्था भी की गई है।

लेकिन केवल कानून पर्याप्त नहीं है। जब तक परिवार और समाज संवेदनशीलता नहीं दिखाएंगे, तब तक कोई योजना सफल नहीं हो सकती।

*सामाजिक संगठनों की भूमिका*

मंदिर आश्रम, स्वयंसेवी संस्थाएँ

और सामाजिक संगठन बुजुर्गों के जीवन को सार्थक बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। वरिष्ठ नागरिक क्लब, योग केंद्र, और सांस्कृतिक गतिविधियाँ उन्हें मानसिक और सामाजिक रूप से सक्रिय रख सकती हैं।

*बुजुर्गों के लिए व्यावहारिक सुझाव*

*स्वास्थ्य का ध्यान रखें* - नियमित योग, प्राणायाम और संतुलित आहार दिनचर्या में शामिल करें।" 

*मानसिक सक्रियता बनाए रखें*- किताबें पढ़ें, लिखें, संगीत सुनें और शौक पूरे करें। 

*संवाद कायम रखें*- बच्चों व पोते- पोतियों से बातचीत करते रहें, इससे अकेलापन दूर होगा। *अपेक्षाएँ संतुलित रखें* परिस्थितियों के अनुसार सहयोगी दृष्टिकोण अपनाएँ। *सामाजिक जुड़ाव*- आस-पड़ोस, मंदिर, और संगठनों से जुड़े रहें। 

*आने वाली पीढ़ियों के लिए सीख* -

यदि वर्तमान समाज बुजुर्गों के साथ उपेक्षा का व्यवहार करेगा, तो अगली पीढ़ी भी यही दृष्टिकोण अपनाएगी। संस्कारों की यह श्रृंखला टूट जाएगी। इसलिए हर युवा को यह सोचना चाहिए कि आज जो बुजुर्ग उसके सामने खड़े हैं, कल वही स्थिति उसकी भी होगी। संवेदना और सम्मान की परंपरा केवल बुजुर्गों को सुरक्षित नहीं करती, बल्कि यह भविष्य की पीढ़ियों को भी सशक्त और नैतिक बनाती है।

*निष्कर्ष बुजुर्ग बोझ नहीं, धरोहर हैं अंततः*

 यह मानना होगा कि बुजुर्ग किसी बोझ नहीं, बल्कि अनुभव, धैर्य और संस्कारों के जीवंत प्रतीक हैं। उनका सम्मान केवल पारिवारिक कर्तव्य नहीं, बल्कि सामाजिक जिम्मेदारी भी है। यदि हम उपेक्षा के बजाय संवेदना और सहयोग की परंपरा को जीवित रखें, तो निश्चय ही आने वाली पीढ़ियों के लिए एक सशक्त और सुसंस्कृत समाज की नींव रखी जा सकेगी। बुजुर्गों की मुस्कान में परिवार की शांति छिपी है. उनकी आशीष में भविष्य की उन्नति । यही भारतीय संस्कृति का सार है और यही हमारा पथप्रदर्शक होना चाहिए।

*सुजीत यादव* ( समाजसेवी व राजनीतिक विश्लेषण)

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